प्यार और प्रेम में क्या अन्तर होता है? अर्थात् प्यार किसे कहते हैं? और प्रेम करना किसे कहा जाता है?
प्यार इन शरीरों से ही होता है; जो कि मायिक ही होता है और प्रेम केवल परमात्मामें ही होता है जो कि वास्तविक ही होता है। "इस समस्त चराचर जगत् से प्यार ही होता है, प्रेम नहीं।" और प्यार में ही कपट और छल-छिद्र भी होते हैं। कपट और छल-छिद्र करनेवाले परमात्मा को सुहाते ही नहीं हैं। परमात्माको तो निर्मल मन वाले मनुष्य ही पाते हैं अथवा प्राप्त करते हैं - निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।। परमात्मा तो उन्हींके हृदयोंमें वशने वाले हैं; जिनके न तो काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह है; न लोभ है, न क्षोभ है; न राग है, न द्वेष है; और न कपट, दम्भ और माया ही है। अर्थात् - काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।। जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया।। प्रेम तो केवल परम आत्मासे ही होता है; क्योंकि जब अत्यधिक कष्ट होता है तब हम इस शरीरको भी छोड़ देनेकी इच्छा करके सुखी होनेकी सोच रखते ही हैं। जैसा कि अत्यधिक कष्ट होनेपर हम शरीरसे राग, मोह आदि नहीं रखते हैं; और अगर ऐसे ही राग, मोह, आसक्ति आदि सदा के लिये जो लोग इन शरीरोंसे रखते